Shivpuri News- भाजपा की सर्वे में तो अच्छी स्थिति थी, फिर क्यों डरी: 5 करोड़ का होगा चुनाव

Bhopal Samachar
अशोक कोचेटा @ शिवपुरी।
नगरीय निकाय के चुनाव में वर्ष 1999 से महापौर, नगर पालिका अध्यक्ष और नगर परिषद के चुनाव की प्रक्रिया राज्य शासन ने बदली थी। इसके पहले ये चुनाव अप्रत्यक्ष पद्धति से अर्थात पार्षदों द्वारा सम्पन्न होते थे। महापौर, नपाध्यक्ष और नगर परिषद अध्यक्ष के चुनाव प्रत्यक्ष पद्धति से कराने के पीछे मंशा यह थी कि एक तो जनता को सीधे महापौर या अध्यक्ष चुनने का अधिकार मिलता और दूसरी मंशा यह थी कि इससे नगरीय निकाय के इन महत्वपूर्ण पदों पर सिर्फ धनबल की बदौलत अबांछित तत्वों की ताजपौशी न हो सके। लेकिन राज्य शासन ने इस बार नगरीय निकाय चुनाव में कुछ बदलाव किया है।

महापौर के चुनाव तो सीधे जनता द्वारा किए जाएंगे। लेकिन नगर पालिका अध्यक्ष और नगर परिषद अध्यक्ष के चुनाव में पुरानी अप्रत्यक्ष पद्धति का आसरा लिया गया है। इस पद्धति से चुनाव किए जाने के निर्णय से तमाम तरह की आशंकाएं उठ रही हैं। यह कहा जा रहा है कि इस पद्धति से अध्यक्ष पद के चुनाव में धन को तो बोलबाला रहेगा और ऐसे व्यक्ति अध्यक्ष बनने में सफल रहेंगे, जो धनबल सम्पन्न होंगे और पात्र व्यक्ति चुनाव की दौड से बाहर हो जाएंगे।

इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा और अध्यक्ष पद के चुनाव में वहीं अध्यक्ष बनेगा जो पार्षदों को खरीदने में सक्षम होगा और अटकलें व्यक्त की जा रही हैं, उसके अनुसार पार्षदों की खरीद हेतु अध्यक्ष बनने के लिए कम से कम 4 से 5 करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी। इतनी बड़ी रकम खर्च कर जो व्यक्ति नपाध्यक्ष बनेगा, वह कैसे नगर का विकास करेगा और उसकी पहली प्राथमिकता अपने स्वयं के विकास की होगी।

इसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ेगा। सवाल यह है कि अध्यक्ष चुनाव के लिए क्या प्रत्यक्ष पद्धति ही एकमात्र सही विकल्प है या फिर अप्रत्यक्ष पद्धति से चुनाव होने से भी कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पडऩे वाला है। आइये इन सब बातों पर हम निष्पक्ष ढंग से चर्चा कर लेते हैं।

राज्य शासन ने महापौर पद का चुनाव सीधे जनता द्वारा और नपाध्यक्ष एवं नगर परिषद अध्यक्ष का चुनाव पार्षदों द्वारा कराने का जो निर्णय लिया है उसमें तर्क भले ही कुछ भी दिया जाए। लेकिन यह विशुद्ध रूप से एक राजनीतिक निर्णय है और इसमें अपने हित अहित का खासतौर पर ध्यान रखा गया है। सूत्रों के अनुसार भाजपा ने जो सर्वे कराया है। उसके अनुसार शहरी क्षेत्र में भाजपा की स्थिति अधिक मजबूत है।

जबकि ग्रामीण क्षेत्र मेंं भाजपा की स्थिति किंचित कमजोर है। महंगाई और बेरोजगारी से आम जनता परेशान है। इसलिए भाजपा को यह आशंका थी कि नगरीय निकाय चुनाव में यदि उसके अध्यक्ष पद के प्रत्याशी हार जाएंगे तो इसका प्रभाव अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा की संभावनाओं पर पड़ सकता है।

खैर यह तो भाजपा के राजनीतिक फायदे की बात हुई। लेकिन अब यह निर्णय कितना मुफीद है या कितना गलत है, इस पर भी थोड़ा विचार कर लेते हैं। नगरीय निकाय चुनाव में महापौर और नपाध्यक्ष तथा नगर परिषद के चुनाव जनता द्वारा 1999 से किए जा रहे हैं। तब से अब तक 4 बार मेयर और नगर पालिका अध्यक्ष तथा नगर परिषद अध्यक्ष नगर निगमों, नगर पालिकाओं और नगर परिषदों में बन चुके हैं। शिवपुरी की ही बात करें तो 1999 में सबसे पहले जनता द्वारा चुने गए नपाध्यक्ष माखनलाल राठौर रहे, जो भाजपा के टिकट से चुनाव जीते।

इसके बाद निर्दलीय जगमोहन सिंह सेंगर ने कांग्रेस और भाजपा प्रत्याशियों को पराजित किया। 2009 में भाजपा की रिशिका अष्ठाना ने कांग्रेस की श्रीमति आशा गुप्ता को पराजित किया और 2014 के चुनाव में कांग्रेस के मुन्नालाल कुशवाह ने भाजपा के हरिओम राठौर को मात दी। इन चार चुनावों में अभी तक दो बार भाजपा, एक बार कांग्रेस और एक बार निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीत चुका है।

निश्चित तौर पर इन चुनावों में अध्यक्ष पद के उम्मीदवार को 4 से 5 करोड़ रुपए खर्च नहीं करने पड़े होंगे। यह आंकड़ा 1 करोड़ पर भी नहीं पहुंचा होगा और चुनाव खर्च करने में नियमानुसार जो धनराशि आवश्यक है, लगभग उसी राशि में ही अध्यक्ष पद के प्रत्याशी ने विजयश्री हासिल की होगी। जनता ने जिसे विश्वासपूर्वक जिताया है, जिस पर शहर विकास के लिए भरोसा किया है, उसे तो पूरी ताकत और ऊर्जा से शहर के विकास में जुट जाना चाहिए था।

उसके लिए यह भी समस्या नहीं थी कि अध्यक्ष के चुनाव में उसने करोड़ों रूपए फूंके हैं, इसलिए पहले उसे उस राशि को ब्याज सहित वसूल करना है। लेकिन ऐसा हुआ कहां। सच्चाई यह है कि नगरीय निकाय में पिछले 15-20 सालों से भ्रष्टाचार बेहद तेज गति से बढ़ा। जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार में डूब गए और जन समस्याओं के निदान के स्थान पर अपने हित साधना पहली प्राथमिकता रही। हालांकि इसके कुछ अपवाद भी रहे। लेकिन गिने-चुने अपवादों से काम नहीं चलता है।

पूर्व पार्षद राजू गुर्जर कहते भी हैं कि इसके पहले अध्यक्ष के चुनाव में करोड़ों रूपए खर्च नहीं हुए थे लेकिन क्या भ्रष्टाचार कम हुआ। क्या जनता की समस्याएं प्राथमिकता से हल हुईं। उनका कहना है कि भ्रष्टाचार को कम करना है तो उसका सिर्फ एक ही उपाय है कि अच्छी छवि के लोगों को जनता पार्षद चुने और ऐसे लोग परिषद में जाएं जो बिके नहीं। इसलिए यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि अध्यक्ष का चुनाव किस पद्धति से हो रहा है।

महत्वपूर्ण यह है कि किस मानसिकता के व्यक्ति चुने जा रहे हैं। अध्यक्ष पद की दावेदार मानी जाने वाली वार्ड क्रमांक 15 से टिकट की अभिलाषी श्रीमति किरण ठाकुर के पति अशोक ठाकुर मानते हैं कि अध्यक्ष पद के चुनाव में बड़ी धनराशि खर्च होगी। लेकिन उनका कहना है कि कुछ अच्छे लोग भी हैं, जो पैसों के लिए नहीं अपनी प्रतिष्ठा के लिए जनता के मैदान में हैं।

लब्बोलुआब यह है कि भ्रष्टाचारी किसी भी पद्धति से चुना जाए, भ्रष्टाचार करेगा। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह जनता द्वारा चुना गया है अथवा पार्षदों द्वारा। अच्छा व्यक्ति किसी भी पद्धति से चुनकर आए वह धन से अधिक अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखेगा। ऐसी स्थिति में विभिन्न दलों और जनता का यह दायित्व है कि वह अच्छे प्रत्याशियों को चुने। ताकि नगर पालिका शिवपुरी की एक अलग अनुपम छवि विकसित हो सके।