काजल सिकरवार शिवपुरीं। जिस भारत के लोकतंत्र की विश्व मे सहाराना की जाती हैं उस भारत में अब लोकतंत्र बोली लगाकर बेचने जैसे खबरे भी आने लगी हैं सैकडो वर्षो की गुलामी की लडाई लडने के बाद देश मे लोकतंत्र की स्थापना की थी। पंचायत चुनाव सिर पर खडे हैं चुनावी गणित लगने लगे हैं और इसी गणित मे 31 लाख में 1200 वोटरो ने लोकतंत्र को बेच दिया और अपनी मातृभूमि से गद्ददारी कर ली।
मामला कोलारस विधानसभा की इमलावदी पंचायत का हैं। सबसे पहले इस गांव के वोटरो का गणित समझने का प्रयास करते है। इमलावदी यादव बाहुल्य गांव है। इसमें बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग भी रहते हैं। इस बार यहां सरपंच की सीट आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) के लिए आरक्षित है, जबकि संबंधित दावेदार अलग वर्ग से है ऐसे में वह जिस भी आदिवासी को खड़ा करेगा, वह ही र्निविरोध चुना जाएगा। इमलावदी में करीब 1200 की वोटिंग है। इसमें दो मजरे और शामिल हैं जिसमें करीब 400 आदिवासी मतदाता हैं।
2583.33 रूपए प्रति रूपए बिका मतदाता
ग्राम पंचायत ईमलावदी में गांव के एक यादव समाज के दावेदार ने मंदिरों के जीर्णोद्वार के लिए 31 लाख रुपये दिए हैं। जिसके बदले आम सहमति बना ली कि कोई भी विरोध में नामांकन नहीं भरेगा।
इसके लिए गुरुवार को गांव के हनुमान मंदिर पर संंबंधित दावेदार 31 लाख रुपये बोरे में भरकर पहुंचा और कहा कि इन रुपयों से पंचायत में आने वाले सभी मंदिरों का जीर्णोद्वार होगा। सरपंच बनने के बाद जो आय होगी उसका भी एक हिस्सा मंदिरों के लिए दिया जाएगा। इसके बाद पूरे गांव में बतासे बांटकर उसके सरपंच बनने का जश्न मनाया गया।
क्या धर्म हैं यह या अपनी मातृभूति से गद्दारी
बडा सवाल है कि यह यह धर्म हैं कि मंदिरो के निर्माण और जीर्णोद्धार के नाम पर लोकतंत्र को खरीद लिया गया। लोकतंत्र को मंदिर कहा जाता है। दूसरी भाषा मे कहे तो यह अपनी मातृभूमि के साथ गद्दारी नही है। अगले 5 साल तक आप सरंपच ने सवाल नही कर सकते अपने गांव के विकास की बता नही कर सकते हैं क्यो की आप बिके हो। आपने अपनी ग्राम सरकार को चुना नही हैं,बल्कि बेच दिया है। विकास के नाम पर निर्माण कार्य अवश्य होगें लेकिन वह जनहित में नही सरंपच हित में होगें। क्यो कि 31 लाख के कई गुना करने हैं स्वाभिक है कि भ्रष्टाचार होगा। यह गांव अब 5 साल पीछे हो जाऐगा।
सबसे बडा सवाल इन 1200 वोटरो की यह गांव जन्मस्थली हैं मां से बडी मातृभूमि हैं इतिहास गवाह है कि मातृभूमि की रक्षा के लिए भारत के कई सपूतो ने आपनी जान न्यौछावर कर दी। भारत भूमि की सीमा पर अपनी मातृभूमि की आन बान शान के लिए देश का जवान अपनी जान हाथ हथेली पर लेकर खडा हैं उसी देश में लोकतंत्र बिकने की खबर हैं।
अपने गुलाम के लिख खरीदी गई सरपंची की कुर्सी
इस बार यहां सरपंच की सीट आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) के लिए आरक्षित है, जबकि संबंधित दावेदार अलग वर्ग से है। आरक्षण प्रक्रिया के हिसाब से यादव साहब सरंपच नही बन सकते हैं लेकिन फिर भी कुर्सी के लिए 31 लाख खर्च। यह आप अवश्य सोच रहे होगें कि गुलाम कैसे। यह भी क्लीयर कर देते है कि अगर यादव साहब का यह नोकर नही हैं नौकर नौकरी छोड सकता हैं। सवाल कर सकता हैं।
बगावत कर सकता हैं,लकिन गुलाम को कोई अधिकार नही होता ना सवाल का और ना ही नौकरी छोडने,सीधे शब्दो में कहे तो गुलाम को सोचने का भी अधिकार नही होता हैं,सिर्फ मालिक की हां में उसकी हां होती हैं और मालिक की ना में उसकी ना होती हैं। सिर्फ एक शब्द जो हुक्म मेरे आका। इस लिए खबर में गुलाम शब्द का इस्तेमाल किया गया है।
अगर मातृभूमि के प्रति आस्था और जन्मभूमि के श्रृद्धा होती तो
अगर इन गांव के ग्रामीणो में मातृभूमि के लिए आस्था होती और जन्मभूमि के श्रृद्धा तो यह गांव के ग्रामीणो की बोली लगी थी तो यह ग्रामीण उस यादव साहब का गांव से ही बाहिष्कार कर देते। वर्तमान में उसका गुलाम खडा होता तो उसको फटा वोट भी ना देकर उसको सजा देते कि आप हमारे गांव की किमत कैसे लगा सकते हो।
उसने जितने रकम से आपके गांव के मंदिरो के निर्माण और पुन:निर्माण की रकम जितनी बोली थी आप पूरा गांव से पैसा लेकर उससे भी अधिक खर्च करते लेकिन इस गांव के निवासी ना ही अपनी जन्मभुूमि के प्रति श्रृद्धा दिखा सके और ना ही अपनी मातृभूमि के लिए आस्था हां गद्दार अवश्य हो गए।