जन्मदिन पर विशेष: दुर्लभ होते जा रहे हैं राजनीति में यशोधरा राजे जैसे किरदार - Shivpuri News,

Bhopal Samachar
शिवपुरी। कै. राजमाता विजयाराजे सिंधिया की सबसे छोटी और लाडली सुपुत्री यशोधरा राजे सिंधिया के 32 वर्ष का राजनैतिक सफर कितना सफल रहा और कितना असफल इसके विषय में भले ही राजनैतिक समीक्षकों की अलग-अलग राय हो। लेकिन निर्विवाद रूप से राजनीति में उनकी सार्थकता से कोई इंकार नहीं कर सकता। राजनेताओं की भीड़ में वह अलग से नजर आती हैं।

अपनी मां की छायां उनमें स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। यहीं कारण है कि वह राजनैतिज्ञ से अधिक मानवीय प्रतीत होती हैं। इस बजह से समय-समय पर उन्हें राजनीति जैसे प्रतिष्ठा के क्षेत्र में दिक्कतों, बाधाओं और संघर्ष का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सिर्फ ईश्वर की सहायता से ही वह अपने अस्तित्व को कायम रखने में सफल हो पाती हैं। शायद कोई अदृश्य शक्ति ही उनकी रक्षक बनती है।

जहां तक उनकी व्यक्तिगत खूबियों का सवाल है तो नेतृत्व क्षमता उनकी बेमिसाल है। साहस की उनके व्यक्तित्व में कोई कमी नहीं है और सबसे बड़ी बात यह है कि हार मानने में उनका विश्वास नहीं है और जुझारूपन उनका सबसे बड़ा गुण हैं। लेकिन राजनीति में उनका पारदर्शिता और साफ-साफ कहने का गुण अक्सर नुकसान पहुंचाता है।

जिससे कई बलाओं को वह स्वयं आमंत्रित कर लेंती हैं और अकारण ही दुश्मनों की फौज उनके इर्द गिर्द इक्कटा हो जाती है। यहीं कारण है कि स्थानीय स्तर और प्रदेश स्तर पर उनके समक्ष बाधाओं का पहाड़ खड़ा नजर आता है। जिससे जिस कैलीवर की वह स्वामिनी हैं। उस स्तर से उन्हें राजनीति में ऊंचाई नहीं मिल पाती और इसकी वह परवाह भी नहीं करतीं।

1989 में राजनीति में उनका पदापर्ण सांयौगिक रूप से हुआ। राजनीति से उनका इसके पहले कोई लेना देना नहीं था। संभाग के लोग उन्हें जानते भी नहीं थे। लेकिन अपनी मां की सहायता करने के लिए वह शिवपुरी स्व. सुशील बहादुर अष्ठाना का प्रचार करने के लिए आ गईं और फिर यहां की आत्मीयता उन्हें इतनी रास आई कि वह यहीं की होकर रह गईं।

उस जमाने के लोग जानते हैं कि तब भाजपा के भीतर से ही उन्हें शिवपुरी से हटाने का एक कुचक्र चला और इसी रणनीति के तहत उनका लोकसभा के लिए नामांकन पत्र निरस्त भी हुआ। पहला चुनाव वह 1998 में लड़ी और उस चुनाव में जीत उनके लिए आसान नहीं रही। हालांकि इसके बाद वह अब तक अपने परफॉरमेंस से शिवपुरी की जनता की चहेती हैं।

2003 में जब वह 25 हजार के विशाल मतों से निर्वाचित होकर विधानसभा मेें पहुंची तो उस समय की मुख्यमंत्री उमा भारती ने उन्हें अपने केबिनेट में शामिल नहीं किया। मंत्री बनने से अधिक यह एक आत्मसम्मान का सवाल था और इससे यशोधरा राजे पीडि़त भी रहीं। उमा भारती के बाद बाबूलाल गौर ने भी उन्हें मंत्रिमंडल में नहीं लिया।

समय-समय पर यशोधरा राजे के धैर्य की परीक्षा होती रही। शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के बाद यशोधरा राजे केबिनेट मंत्री बनी और उन्होंने मंत्री पद की गरिमा को बढ़ाने का ही काम किया। दो बार यशोधरा राजे ग्वालियर से सांसद पद पर भी निर्वाचित हुई। लेकिन उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सत्ता होने के कारण वह मंत्री नहीं बन पाईं।

राजनीति को यशोधरा राजे अपनी मां की तरह एक सेवा का माध्यम मानती हैं और शिवपुरी की विकास योजनाओं को लाने तथा उन्हें क्रियान्वित करने में यशोधरा राजे ने विशेष दिलचस्पी दिखाई। इसलिए यहां उनके बारे में कहा जाता है कि यशोधरा राजे हैं तो मुमकिन हैं।

कोरोना काल में उनकी संवेदनशीलता, जीवटता और समर्पण की साक्षी इस क्षेत्र की जनता है। राजनीति में आने के बाद अक्सर राजनेता भावना शून्य हो जाते हैं और हर घटना को वह अपने लाभ हानि के नजरिए से देखते हैं। लेकिन यशोधरा राजे इस मायने में अपवाद हैं। उन्होंने मानवीय मूल्यों से हटकर कभी अपने व्यक्तिगत फायदे के विषय में नहीं सोचा और उनकी संवेदनशीलता, सहदृयता, आत्मीयता और दूसरे के दुख में द्रवित हो जाने की भावना जस की तस है।
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