शिवपुरी। 2008 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने करैरा और पोहरी की दोनों सीटों पर जीत हांसिल की थी। 2020 के विधानसभा उपचुनाव में क्या ऐसा ही होगा? मतदान के पश्चात राजनैतिक समीक्षकों का आंकलन है कि इसकी संभावना बहुत क्षीण इसलिए हैं। क्योंकि करैरा में भाजपा को जीतने के लिए चमत्कार की जरूरत है।
इसके उलट 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पोहरी और करैरा दोनों सीटों पर विजय पताका फहराई थी। क्या 2018 के चुनाव परिणाम 2020 मेें देखने को मिलेंगे? लेकिन 2020 के विधानसभा उपचुनाव में जातिगत समीकरण भाजपा के अनुकूल प्रतीत हो रहे हैं। करैरा और पोहरी उपचुनाव की एक तस्वीर 2013 के विधानसभा चुनाव परिणाम में भी देखी जा सकती है।
जब कांग्रेस और भाजपा ने एक-एक सीट पर विजय प्राप्त की थी। हो सकता यह संभावना 10 नबंवर को वास्तविकता में बदल जाए। एक चौथी तस्वीर भी है और जिसकी झलक 2003 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिली थी। जब कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों को निराशा का सामना करना पड़ा था।
पोहरी में समानता दल और करैरा में बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार को जीत हांसिल हुई थी। यह तस्वीर पूरी तरह से उभरकर सामने आएगी, इसकी संभावना तो दूर-दूर तक नजर नहीं आती। लेकिन यह हो सकता है कि पोहरी सीट पर बसपा इतिहास में पहली बार कब्जा जमा ले। असल में होगा क्या यह तो 10 नबंवर को परिणाम आने के बाद स्पष्ट होगा। लेकिन परिणाम को लेकर चर्चाएं अवश्य शुरू हो गई हैं।
सबसे पहले पोहरी विधानसभा सीट की बात करते हैं। पोहरी में चुनाव के लिए बनाई गई रणनीति में कांग्रेस उस फॉॅर्मूले को नहीं अपना पाई, जिसके बलबूते उसने 1993 और 2018 के विधानसभा चुनाव में जीत हांसिल की थी। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 25 साल बाद पोहरी में जीत का स्वाद इसलिए चखने को मिला था, क्योंकि उसने 1993 की तरह भाजपा के किरार उम्मीदवार के मुकाबले किरार उम्मीदवार को मैदान में उतारा था।
पोहरी में किरार मतदाताओं की संख्या लगभग 40 हजार है। इन मतों का अधिसंख्यक ध्रुवीकरण जीत की संभावना वाले सजातीय उम्मीदवार के पक्ष में होता है। यदि कांग्रेस या भाजपा मेें से किसी दल ने एक किरार उम्मीदवार को मैदान में उतारा तो ये मत सजातीय उम्मीदवार के खाते मेें जाते हैं। लेकिन यदि दोनों दलों ने किरार उम्मीदवार मैदान में उतारा तो जिसकी जीतने की प्रबल संभावना होती है। उसके पक्ष में किरार मतदाता मतदान करते हैं।
इस चुनाव में भाजपा का उम्मीदवार सुरेश राठखेड़ा (किरार) पहले से तय था। लेकिन कांग्रेस ने किरार मतदाताओं के लिए च्वाईस नहीं छोड़ी और किरार उम्मीदवार के स्थान पर ब्राह्मण जाति के हरिवल्लभ शुक्ला को टिकट दे दिया। इसका मनोवैज्ञानिक फायदा भाजपा को मिला और उसके उम्मीदवार की गिनती 25 हजार मतों से प्रारंभ हुई। किरार मतों के भाजपा के पक्ष में धु्रवीकरण के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी धर्मपत्नी साधना सिंह ने भी बहुत ताकत लगाई।
साधना सिंह ने तो अपने सजातीय छोटे से छोटे व्यक्ति को फोन लगाए। किरार जाति के चुनाव मैदान में उतरने वाले विनोद धाकड़ पर भी नाम वापिस लेने के लिए दबाव डाला गया। इनके अलावा भाजपा की नजर थोकबंद आदिवासी वोटों पर भी रही। किरार और आदिवासी मतों का यदि अधिसंख्यक धु्रवीकरण भाजपा के पक्ष में हुआ तो सुरेश राठखेड़ा की संभावनाएं काफी प्रबल हो जाती हैं।
परंतु तस्वीर का एक पक्ष यह भी है कि भाजपा के कुछ बड़े कार्यकर्ता उनके प्रचार से कटे रहे और जिन्होंने प्रचार भी किया उन्होंने भितरघात में कोई कसर नहीं छोड़ी। भाजपा की एक मजबूत लॉबी कैलाश कुशवाह के प्रचार में जुटी रही। इस स्थिति से निपटना भी भाजपा के लिए आसान नहीं है। चुनाव में कांग्रेस और बसपा की दावेदारी भी कमजोर नहीं है।
कांग्रेस उम्मीदवार हरिवल्लभ शुक्ला राजनीति के घाघ खिलाड़ी हैं। 40 साल से पोहरी उनकी कर्मभूमि बनी हुई है। दो बार वह यहां से विधायक रह चुके हैं। मूल रूप से कांग्रेसी हरिवल्लभ समानता दल, भाजपा और बसपा से होते हुए पुन: कांग्रेस में आए हैं। 2013 में वह काफी कड़े संघर्षे के बाद 3-3.5 हजार मतों से भाजपा से पराजित हुए थे। 2008 में बसपा उम्मीदवार के रूप में वह भले ही 25 हजार मतों से पराजित हुए। लेकिन उस चुनाव की परिस्थितियां अलग थीं।
उपचुनाव में ब्राह्मण और यादव मतों का अधिसंख्यक धु्रवीकरण उनके पक्ष में हुआ है। उनका दावा है कि भाजपा के प्रयास के बावजूद भी आदिवासी मत उन्हें अधिक मिले हंै और दलित मतदाताओं का समर्थन भी उनके पास है। देखना यह है कि हरिवल्लभ कांग्रेस की 2018 की विजय गाथा को क्या कायम रख पाते हैं अथवा नहीं।
चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार की ताकत किरार और दलित मतों पर आश्रित है। व्यवहार का भी उन्हें फायदा मिला है। 2018 के चुनाव में दूसरे स्थान पर रहने से उनके प्रति सहानुभूति का भी वातावरण है। उनकी जीत की संभावना को भी एक दम से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पोहरी की तरह करैरा में मामला उतना उलझा हुआ नहीं है। करैरा में भाजपा ने पूरी ताकत लगाई। लेकिन क्षेत्र में चर्चा यह है कि कांग्रेस प्रत्याशी का चुनाव जनता ने लड़ा था।
कांग्रेस प्रत्याशी प्रागीलाल जाटव पिछले तीन चुनावों से करैरा में लगातार सक्रिय हैं और हर चुनाव में उन्हें 35 से 40 हजार मत मिले हैं। इनमें बड़ी संख्या दलित मतदाताओं की है। उन्हें अपने मृद्ध़़ु और शालीन व्यवहार का चुनाव में फायदा मिलता हुआ दिखा है। भाजपा की तुलना में कांग्रेस की सभाएं और रैलियां कम हुई। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की सभा में उमड़ी भीड़ ने भाजपा की नीदं उड़ा दी। जहां तक भाजपा उम्मीदवार जसमंत जाटव का सवाल है।
वह दो साल पहले विधायक निर्वाचित हुए थे। लेकिन वह अपने व्यवहार से करैरा की जनता का दिल नहीं जीत पाए और उन पर रैत के अवैध उत्खनन जैसे अनेक आरोप लगे। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने और उनके समर्थकों ने कई बार मतदाताओं से माफी मांगी। देखना यह है कि उसका कितना फायदा उन्हें मिल पाता है। पिछले चुनाव में जसमंत जाटव 14 हजार मतों से विजयी हुए थे। लेकिन इस बार उनकी जीत की राह आसान नहीं है और करैरा में उन्हें जीत के लिए चमत्कार करने की आवश्यकता होगी।