शिवपुरी जिले में बना है फलों और दालो की मदद से सिंध नदी पर पुल: मजबूत इतना कि सिंध भी हिला सकी - Shivpuri News

Bhopal Samachar
शेखर यादव@ शिवपुरी। अगर किसी पुल के मजबूती के विषय में बात करे तो सबसे पहले आपके मन मे लोहा सीमेंट की तस्वीर सामने आएगी,लेकिन अगर यह कहा जाए कि इससे ज्यादा मजबूत और ताकतवर वील का फल और उडद की दाल और गन्ने का रस होता हैं तो हसने पर मजबूर होगें लेकिन यह सत्य हैं और इसका प्रमाण हैं सिंध नदी पर इन सभी चीजों से बना यह पुल जो 5 दशको से सिंध के प्रचंड का वेग झेल रहा है।

वर्तमान में इंजीनियरों ने बीच समुद्र में मकान तैरा दिए है। देश विदेशों में इंजीनियर की कल्पना का साकार रूप हैरान करने वाला हैं। लेकिन भारतीय इंजीनियर कौशल का पूरे विश्व में तोड नही हैं। आज कंक्रीट,सीमेंट,लोहा,स्टील और कई तरह की धातु का इस्तेमाल कर निर्माण किया जाता हैं।

लेकिन भारतीय इंजीनियर नही बल्कि एक आम कारीगर की कारीगरी और निर्माण सोच इतनी आगे थी,कि उसने फलो और दालो की मदद से एक ऐसा पुल तैयार किया जो आज 5 दशक बाद पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं,जो अपने निर्माण से आज तक सिंध का प्रंचड वैग झेल रहा हैं। यह पुल शिवपुरी जिले में अपनी भारतीय निर्माण शैली की गाथा को गा रहा हैं। आईए जानते हैं इस पुल के बारे में।

473 साल पहले शहंशाह शेरशाह सूरी को जब आगरा से बुरहानपुर के लिए निकलना था तब वर्ष 1547 में नरवर में बिना इंजीनियर्स की मदद के सिंध नदी के नरवर-मगरोनी पुल को कारीगरों ने बनाया। खास बात यह है कि यह सीमेंट और रेत से नहीं बल्कि चूना, सुरखी (ईंट का चूरा) वीलफल, उड़द दाल, गन्ने के सीरे से बिना इंजीनियर की मदद से कारीगरों ने बनाया। इसकी मजबूती इतनी है कि वाहन तो बैखोफ इसके सीने से गुजरते हैं साथ में सिंध का प्रंचड वैग भी यह पुल पिछले 5 दशको से झेल रहा हैं।

इतिहासकार डॉ मनोज माहेश्वरी बताते हैं कि अब से 472 साल पहले शहंशाह शेरशाह सूरी की बुरहानपुर की यात्रा के लिए इसे तैयार कराया गया था। यह पुल आज भी अपनी सुंदर कलाकृति और मजबूती के लिए जाना जाता है। इस पुल की खास बात यह है कि इसे बनाने के लिए न तो इंजीनियर तब थे और और न ही किसी ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की।

बावजूद इसके 1547 में बने इस पुल की मजबूती आज भी बरकरार है और इसी एक मात्र पुल के जरिए नरवर से मगराैनी के बीच वाहनों का आवागमन होता है। ठीक इसी तरह का पुल नरवर से सतनवाड़ा के रास्ते पर भी है जो दर्शाता है कि हमारे पुराने कारीगर विश्व की बेजोड़ कलाकृति को बनाने वालों में से एक थे।

सीमेंट कंक्रीट की उम्र 50-100 वर्ष से अधिक नहीं होती। और इसमें क्षरण तो इस दौरान कभी भी हो सकता है। ऐसे में इस पुल का निर्माण चूना, सुरखी यानि ईंट का चूरा, भारतीय वीलफल,अपनी किचिन की रानी उड़द दाल, मीठे का जनक गन्ने के सीरे से बिना इंजीनियर की मदद से कारीगरों ने इसे बनाया है।

और सन 1971 में हुई तेज बारिश के बाद इसके हुए आंशिक क्षरण को छोड़ दें तो आज तक इसमें ईंट भी नहीं लगी है।ऐसे थे हमारे पुराने कारीगर जो बिना इंजीनियर की पढाई के भी इंजीनियर से बड़ा काम करते थे।

किवदंती: इसे लाखा बंजारा ने बनाया था

इतिहासकार डॉ मनोज माहेश्वरी की मानें तो एक किवदंती यह भी है कि इसे लाखा बंजारा ने बनाया। उस पर अपार क्षमताएं थीं। लेकिन इसका प्रमाण नहीं मिलता इतिहास बताता है कि शेरशाह सूरी के हाथियों और काफिले को निकलने के लिए ही इसे बनाया गया था। और इसकी पुष्टि इतिहासकार अरुण अपेक्षित भी करते हैं। उनका कहना है कि उनकी विशाल सेना को यहां से निकलने के लिए भी पुल बना और मुरैना के पास भी पुल बना। अन्य जगह भी उसी समय की इसी तरह से बने पुल हैं।
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