सहरिया क्रांति आंदोलन से छुआछूत की अँधेरी गुफाओं से बाहर आने लगे सहरिया आदिवासी: संंजय बैचेन- Shivpuri News

Bhopal Samachar
शिवपुरी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बड़े मंचों से बुलंद आवाज में आदिवासी समाज के हित की बात करते हैं,उनके साथ उन्ही के अंदाज में नाच गान करते हैं तो लगता है कि जैसे बदलाव की बयार चल रही है। उम्मीदों के चिराग रोशन हो रहे हैं। सत्तारूढ़ दल का 'सब का साथ, सब का विकास' नारा भी उम्मीदों को चार चांद लगा देता है। मीडिया व् चैनल पर तसवीर कुछ इस अंदाज में पेश होती है, जैसे समाज में बराबरी आ रही है। आदिवासी तबका अब अनदेखा नहीं है और उस की जिंदगी में खुशियां दस्तक दे रही हैं। यह सपने सरीखा हो सकता है, लेकिन जमीनी हकीकत ऐसी नहीं है।

कई गांवों में जातिवाद और छुआछूत की बीमारी ने 21वीं सदी में भी अपने लंबे पैर पसार रखे हैं। इस पर शर्मनाक बात यह है कि रूढि़वाद के बोझ से लोग निकलने को तैयार नहीं हैं। यों तो संविधान में सब को बराबरी का हक है। कोई दिक्कत आए, तो इसे लागू कराने के लिए सख्त कानून भी बने हुए हैं, इस के बावजूद गैरबराबरी धड़ल्ले से जारी है। आदिवासी छुआछूत का शिकार हो रहे हैं। ग्वालियर चम्बल संभाग में वरिष्ठ पत्रकार संजय बेचैन ने सहरिया क्रांति आन्दोलन चलाकर इस गैर बराबरी को दूर करने को लेकर सामाजिक अभियान छेडा हुआ है। जिसके सार्थक नतीजे अब सामने आने लगे हैं। जबकि कई ग्रामीण इलाकों में आज भी हालत बद से बदतर हैं।

सहरिया क्रांति के ओतार भाई सहरिया बताते हैं कि अनेक गांवों में किसी सामूहिक आयोजन के नाम पर आदिवासियों से चंदा व अनाज तो लिया जाता है मगर भोजनशाला में उनका प्रवेश निषिद ही रहता है। गाँव के सामूहिक भोज के कार्यक्रमों में उन्हें परस कराने का भी अधिकार नहीं है हाँ वे केवल अपने समाज के लोगों को परस कर सकते हैं। जातिगत भेदभाव का शिकार आदिवासी इसे सदियों से चली परम्परा मानकर चुप रहते थे मगर अब सहरिया क्रांति कि पहल पर इस कुप्रथा के विरुद्ध जागरूकता आ रही है और लोग अपमान भोज का बहिष्कार करने लगे हैं। ऐसी पंगत में जाना बंद किया तो अब लोग समानता से भोजन कराने लगे हैं।

राजेन्द्र आदिवासी बताते हैं कि आज भी सुभाषपुरा के भीतरी गांवों में जब किसी बड़े कहे जाने वाले समाज के यहाँ विवाह समारोह या अन्य कार्यक्रम होता है जो आर्थिक तौर पर उनसे कमजोर हैं व खेतिहर मजदूर आदिवासी हैं उनको अलग दूर पंगत में बैठाया जाता है व घर से अपने अपने बर्तन उनसे मंगवाए जाते हैं व उन्ही में दूर से उन्हें पंगत खिलाई जाती है। राजेन्द्र आदिवासी कहते हैं कि इस शर्मनाक स्थिति से अब हम उबर रहे हैं सहरिया क्रांति आन्दोलन ने गांवों में इस कुप्रथा के विरुद्ध शंखनाद कर रखा है। अब अनेक गांवों में आदिवासी समाज इन अपमान भोजो में जाने से परहेज करने लगा है।

गडी बरोद के युवा अजय आदिवासी कहते हैं कि पहले हम नासमझी के कारण ऐसी पंगतों में भोजन करने चले जाते थे जहां जातिगत भेदभाव का शिकार होते थे सामने ही बाकि सब आमंत्रितों के लिए टाटपट्टी व टेवल कुर्सी पर सम्मान के साथ खाना खिलाया जाता था और हमारे समाज के लिए दूर अलग पंगत लगाईं जाती थी व बर्तन भी अपने ही लाने पड़ते थे, उनका कहना है कि सहरिया क्रांति आन्दोलन के बाद अब ऐसी पंगतों का हमने बहिष्कार कर दिया है जिसमे हमे अपमानित करके पंगत खिलाई जाती हो।

वीर सिंह कहते हैं कि एक बार हमारे गाँव में चंदा इकट्ठा कर के सामूहिक भंडारा कराया गया. गांव सहरिया समाज से भी इस के लिए चंदा वसूला गया था। भोज चल ही रहा था कि इसी बीच कुछ हमारे नौजवानों ने भी भोज परोसने के लिए पूरियों की टोकरियां उठा लीं बस, इस बात पर दबंगों की त्योरियां चढ़ गईं।

उन्होंने सोचा कि शायद चंदा देने के बाद ये बराबरी के भरम के शिकार हो गए हैं। आदिवासियों को वहीं बेइज्जत किया गया। उन्होंने न सिर्फ खाना खाने से इनकार कर दिया, बल्कि आदिवासियों को अलग बिठाने को भी कहा। इस का विरोध किया, तो झगड़ा हो गया। अब आदिवासी खुद अपना आयोजन करते हैं व अन्य ऐसे आयोजनों में जाने से परहेज करने लगे हैं।

अनिल आदिवासी कहते हैं कि गाँव के सरकारी हैण्डपम्प से पानी भरने को लेकर पहले काफी भेदभाव होता था लेकिन अब सहरिया क्रांति के बाद गाँव के हैण्डपम्प पर भेदभाव खत्म हो गया है सहरिया क्रांति आन्दोलन ने गांवों में जाग्रति कि अलख जगा दी है। शिक्षित आदिवासी नौजवान विजय आदिवासी सरकारी सेवा में हैं वे कहते हैं कि ऐसी सामाजिक बुराई के खिलाफ लगातार आवाज बुलंद की जानी चाहिए।

संवैधानिक हकों को मारने वालों के खिलाफ कानून का कड़ाई से पालन हो और उस में डर पैदा हो। वे कहते हैं कि आज़ादी के बाद सहरिया क्रांति आन्दोलन पहला ऐसा अभियान है जिसने आदिवासियों को कई अँधेरी गुफाओं से बाहर निकाला है, आज प्रतिदिन कोई न कोई गाँव कुप्रथाओं से बाहर आ रहा है व बराबरी से अपने हक अधिकार लेने घर से निकलने लगा है।

हालांकि आदिवासियों की भलाई के लिए कई तरह के कानून बने हैं, पर कागजी और कानूनी हकों को दबंग सामाजिक तौर पर देने को आज भी तैयार नहीं हैं। बात सिर्फ कानून बनाने से हल होती नहीं दिखती, बल्कि इस के लिए सामाजिक पहल की भी जरूरत है। कल्याण आदिवासी कहते हैं कि आलम यह है कि सहरिया क्रांति आन्दोलन से पहले आदिवासियों की खुशियों पर भी दबंगों का पहरा होता था।

उन के हिसाब से आदिवासियों को उन के सामने खुशियां मनाने की इजाजत नहीं होती थी कई गांवों में आदिवासियों की शादियों में बैंडबाजे बजने और दूल्हों के घोड़ी पर बैठने पर दबंग एतराज करते थे लेकिन अब ढोल नगाड़े बैंडबाजे के साथ कई गाँवों में बारातें निकलने लगी हैं ये सब बदलाब का श्रेय सहरिया क्रांति को जाता हिया जिसने सहरिया जनजाति के उत्थान में दी रात अपनी भूमिका का सही ढंग से निर्वहन किया ।
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