मेरू तेरस पर मनाया गया भगवान आदिनाथ का निर्वाण कल्याणक महोत्सव | Shivpuri News

Bhopal Samachar
शिवपुरी। माघवदी तेरस (मेरू तेरस) पर जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (भगवान आदिनाथ) का निर्वाण महोत्सव श्वेताम्बर जैन समाज ने पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में उत्साह के साथ मनाया। इस अवसर पर नगर के प्रमुख मार्गो से जुलूस निकला, जिसमें श्रृद्धालु जोरशोर से भगवान आदिनाथ की जय के नारे लगा रहे थे। मेरू तेरस पर भगवान ऋषभदेव ने अपने 10 हजार शिष्यों के साथ शिखरजी तीर्थ में मोक्षगति को प्राप्त किया था।

जुलूस के पूर्व इस वर्ष पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में ध्वजा चढ़ाने का लाभ लेने वाले बागमल-अरूण कुमार-नवीन कुमार सांखला परिवार द्वारा पधारे समस्त भाई-बहनों को नवकारसी कराई गई। इसके बाद जुलूस निकला और जुलूस का समापन पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में हुआ। जहां भक्तिभाव के साथ महिलाओं ने गमली की और प्रभू भक्ति के गीत गाए।

बता देेंं कि संस्कृति के सूत्रधार भगवान ऋषभदेव असि, मसि और कृषि के भी प्रणेता थे। प्रथम तीर्थंकर और असि, मसि और कृषि को समझाने वाले आदिनाथ परमात्मा का जन्म चैत्रकृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय हुआ था। उन्हें जन्म से ही सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान था, वे समस्त कलाओं के ज्ञाता और सरस्वती के स्वामी थे।

विनीता नगरी में जन्मे प्रभू की आयु 84 लाख वर्ष थी। उनकी काया 500 धनुष (3000 फिट) की थी। युवा होने पर उनका विवाह दो बहनों यशस्वती और सुनंदा से हुआ। यशस्वी ने भरत को जन्म दिया, जो आगे चलकर चक्रवती सम्राट बने और जिनके नाम पर ही हमारे देश को भारत कहा जाता है। सुनंदा ने बाहुबली को जन्म दिया। जिन्होंने घनघोर तप कर अनेक सिद्धियां प्राप्त कीं। इस प्रकार आदिनाथ 100 पुत्रों और ब्राह्मी तथा सुंदरी नाम दो पुत्रियों के पिता बने।

भगवान ऋषभदेव ने ही विवाह संस्था की शुरूआत की और प्रजा को पहले-पहले असि (सैनिक कार्य), मसि (लेखन कार्य), कृषि (खेती), विद्या, शिल्प और वाणिज्य व्यापार के लिए प्रेरित किया। कहा जाता है कि इसके पूर्व प्रजा की सभी जरूरतों कों कल्पवृक्ष पूरा करते थे। भगवान ऋषभदेव का सूत्रवाक्य था- कृषि करो या ऋषि बनो।

ऋषभदेव ने हजारों वर्षो तक सुखपूर्वक राज्य किया और बाद में राज्य को अपने पुत्रों में विभाजित कर वह दिगम्बर साधु बन गए। उनके साथ उनके सैकड़ों लोगों ने भी उनका अनुसरण किया। जब कभी वे भिक्षा मांगने जाते थे, तो लोग उन्हें सोना-चांदी, हीरे रत्न आभूषण आदि देते थे। लेकिन भोजन कोई नहीं देता था। इस प्रकार उनके बहुत से अनुयायी भूख बर्दाश्त न कर सके और उन्होंने अपने अलग समूह बनाना प्रारंभ कर दिए। यहीं से जैन धर्म में अनेक सम्प्रादायों की शुरूआत हुई।

जैन धर्म में मान्यता है कि जब तक साधु को पूर्णता (केवल्य ज्ञान) प्राप्त नहीं हो जाती तब तक वह मौन रहते हैं। भगवान महावीर ने 12 वर्ष तपस्या कर केवल्य ज्ञान प्राप्त किया और इसके बाद उनका प्रथम उपदेश मुखरित हुआ। उसी तरह भगवान ऋषभदेव ने भी दीक्षा लेने के बाद मौन धारण कर लिया था। इसलिए उन्हें एक वर्ष तक भूखे रहने पड़ा।

इसके बाद वह अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। जहां श्रेयांश ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया। जिसे उन्होंने स्वीकार किया। वह दिन आज भी अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध है। हस्तिनापुर में आज भी जैन धर्माबलंबी इस दिन गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं। 1 हजार वर्ष तक कठोर तप करके ऋषभदेव को केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ और वह जिनेंद्र बन गए।

पूर्णता प्राप्त करके उन्होंने अपना मौन व्रत तोड़ा और सम्पूर्ण आर्यखंड में लगभग 99 हजार वर्षो तक धर्म विहार किया। अपनी आयु के 14 दिन शेष रहने पर भगवान ऋषभदेव हिमालय पर्वत के कैलाश शिखर पर समाधिलीन हो गए और मेरू तेरस पर उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
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