गुरु परम्पराः एकलव्य को बनाया अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर, यह था गौरवशाली इतिहास- Shivpuri news

Bhopal Samachar

शिवपुरी। जीवन में यदि उत्तरोत्तर उन्नति करना है तो अपनी गुरु परम्परा और पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास को हमेशा याद रखो। गुरू परम्परा के स्मरण ने ही एकलव्य को अर्जुन से श्रेष्ठ धर्नुधर बनाया। जबकि अर्जुन को धनुष बाण चलाने की शिक्षा स्वयं गुरु द्रोण दे रहे थे।

उक्त उदगार पर्यूषण पर्व के सातवें दिन कल्पसूत्र का वाचन करते हुए प्रसिद्ध जैन संत कुलदर्शन विजय जी ने आराधना भवन में आयोजित धर्मसभा में व्यक्त किए। उन्होंने जिन शासन में गुरु परम्परा का महत्व बताया।

वहीं प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान और 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के जीवन दर्शन को भी व्यक्त किया। प्रवचन के पूर्व सुवासरा से पधारे भजन गायक ने सभागार में भक्ति रस की गंगा प्रवाहित की। आचार्य कुलचंद्र सूरि जी ने मांगलिक पाठ का श्रवण श्रोताओं को कराया।

संत कुलदर्शन विजय जी ने समझाइश दी कि जीवन में अपनी कुल और गुरु परम्पराओं को कभी विस्मृत न करें। अपने गौरवशाली इतिहास को हमेशा याद रखें। उन्होंने कहा कि हमारा जीवन हमारे पूर्वजों और गुरुजनों के उपकार की देन है और इन्हें यदि हम याद नहीं रखेंगे तो न केवल कृतघ्न कहे जाएंगे।

बल्कि समय.समय पर आपत्ति और विपत्ति का भी हमें सामना करना पड़ेगा। उन्होंने अपने गुरु कुलचंद्र विजय जी का उदाहरण देते हुए कहा कि वह जब भी कोई काम अपने हाथ में लेते हैं तो सबसे पहले अपने गुरु आचार्य प्रेम सूरीश्वरजी महाराज साहब को याद करते हैं।

वह कहते हैं कि मेरे सभी काम गुरू के स्मरण से पूर्ण होते हैं। गुरु परम्परा के कारण ही आचार्य कुलचंद्र सूरि जी ने शिवपुरी में चार्तुमास करने की विनती को स्वीकार किया। शिवपुरी में उनकी कुल परम्परा के गुरु आचार्य विजय धर्म सूरि जी की समाधि है और अपने गुरु के प्रति कर्तव्यों को पूर्ण करने हेतु वह चार्तुमास करने की अन्य महानगरों की विनती को अस्वीकार कर शिवपुरी चार्तुमास करने के लिए पधारे हैं और गुरू के आर्शीवाद से समाधि मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य सुचारू रूप से हो रहा है।

उन्होंने कहा कि जिन्होंने हम पर उपकार किया है। उनकी स्मृति हमेशा हमारे मानस में रहना चाहिए। जिसने भी अपने गौरवशाली इतिहास को विस्मृत किया हैए उसका पतन हुआ है। गुरू स्मरण और पूर्वजों को क्यों याद किया जाए इसका जवाब देते हुए संत कुलदर्शन विजय जी ने कहा कि इससे सबसे बड़ा लाभ यह है कि हमें उनका प्रत्यक्ष और परोक्ष आर्शीवाद मिलता है।

आर्शीवाद से तमाम बिगड़े काम सही हो जाते हैं। गुरु और पूर्वजों के आशीर्वाद से घोर से घोर विपदा में भी व्यक्ति बाहर निकल आता है। गुरु और पूर्वजों को याद रखने से दूसरा लाभ यह है कि हमें लगातार उनका रक्षा कवच मिलता है। जैसे बरसात आती हैए तो छाता हमारा बचाव करता है। उसी तरह से पूर्वजों और गुरुओं का रक्षा कवच हमें तमाम परेशानियों से बाहर निकालता है।

गुरू परम्परा के स्मरण से तीसरा लाभ संत कुलदर्शन विजय जी ने यह बताया कि इससे हमें आत्म ज्ञान की प्राप्ति होती है।  धर्मसभा में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन चरित्र को स्पष्ट करते हुए संत कुलदर्शन विजय जी ने बताया कि 30 वर्ष तक वह गृहस्थ अवस्था में रहे।

इसके बाद उन्होंने संन्यास ग्रहण किया। चूंकि उस भव में उनका मोक्ष निश्चित था इसलिए उन्हें जन्म से ही श्रुति अवधि और मति ज्ञान मिले हुए थे। दीक्षा लेने के 83 दिन बाद उन्हें केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। हालांकि दीक्षा लेते ही उन्हें मन पर्याय ज्ञान प्राप्त हो चुका था।

अपने जीवन को सुधारने का माध्यम है धर्म रू संत कुलरक्षित
पोषद भवन में स्थानकवासी समाज के समक्ष धर्मसभा को संबोधित करते हुए संत कुलरक्षित विजय जी ने अंतगढ़ सूत्र का वाचन किया। इसके पूर्व उन्होंने बताया कि धर्म जीवन को सुधारने का माध्यम है।

 धर्म जीवन जीने की कला सिखाता है। धर्म के माध्यम से व्यक्ति अपना आत्म अवलोकन कर सकता है। धर्म अनुभूति की वस्तु है। उन्होंने कहा कि पर्यूषण पर्व मनाना हमारा तब सार्थक होगा जब हम अपने भीतर के शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेंगे।
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